Hindi Poems on Nature - दोस्तों हम इस पोस्ट आपके साथ कुछ बहुत सूंदर Poems about Nature in Hindi शेयर कर रहे है। जैसा की आप सबको पता ही है की हमारी ज़िन्दगी में प्रकर्ति का कितना अधिक महत्व है। प्रकर्ति हमारे जीवन का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है। 

हमे खाना भी प्रकर्ति के द्वारा ही मिलता है और हमे जीने के लिए हवा भी पेड़ और पोधो के द्वारा मिलता है। लेकिन आज के इस आधुनिक जीवन में लोग प्रकृति का महत्व ही भूल गए है। और लोग अब प्रकर्ति की कदर तक नहीं करते है। लोग आजकल पेड़ और पोधो को काट रहे है और वह बड़ी बड़ी इमारते और कम्पनिया बना रहे है। 

यही कारण है की ग्लोबल वार्मिंग भी बढ़ती जा रही है। जिसके कारण हमारे आसपास के वातावरण में पर्दूषण बढ़ता जा रहा है। हमे अपनी प्रकर्ति का ध्यान रखना चाहिए और हमारे घरो के आस पास पेड़ या पोधे लगाने चाहिए । जिसके कारण हमारा वातावरण शुद्ध होगा और पर्दूषण भी कम होगा। 

इस पोस्ट हम आपके साथ कुछ प्रकर्ति पर कविता शेयर कर रहे है जिसमे कवी ने प्रकर्ति की सुंदरता का वर्णन किया है। यह सभी कविताए बहुत ही Heart Touching Nature Poems in Hindi है। 

कवि प्राकृति के बहुत ही करीब होते हैं. छायावादी युग के कवियों ने तो प्राकृतिक को आधार मानकर अनेकों रचनाएँ कर डाली हैं. आपको निचे दिए कुछ बहुत ही लोकप्रिय Poem about Nature in Hindi, प्रकृति पर कविता दी गयी हैं. हमें आशा हैं की आपको हमारी यह Poems in Hindi on Nature, Hindi Kavita on Nature बहुत पसंद आएगी। 

Hindi Kavita about Nature
Hindi Poems On Nature

Collections of Poems on Nature in Hindi 

Poem 1 - Hindi Kavita on Nature

प्रकृति से मिले है हमे कई उपहार

बहुत अनमोल है ये सभी उपहार

वायु जल वृक्ष आदि है इनके नाम

नहीं चुका सकते हम इनके दाम

वृक्ष जिसे हम कहते है

कई नाम इसके होते है

सर्दी गर्मी बारिश ये सहते है

पर कभी कुछ नहीं ये कहते है

हर प्राणी को जीवन देते

पर बदले में ये कुछ नहीं लेते

समय रहते यदि हम नहीं समझे ये बात

मूक खड़े इन वृक्षो में भी होती है जान

करने से पहले इन वृक्षो पर वार

वृक्षो का है जीवन में कितना है उपकार


Poem 2 - Prakrati Par Hindi Kavita

प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है,

मार्ग वह हमें दिखाती है।

प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

नदी कहती है’ बहो, बहो

जहाँ हो, पड़े न वहाँ रहो।

जहाँ गंतव्य, वहाँ जाओ,

पूर्णता जीवन की पाओ।

विश्व गति ही तो जीवन है,

अगति तो मृत्यु कहाती है।

प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

शैल कहतें है, शिखर बनो,

उठो ऊँचे, तुम खूब तनो।

ठोस आधार तुम्हारा हो,

विशिष्टिकरण सहारा हो।

रहो तुम सदा उर्ध्वगामी,

उर्ध्वता पूर्ण बनाती है।

प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

वृक्ष कहते हैं खूब फलो,

दान के पथ पर सदा चलो।

सभी को दो शीतल छाया,

पुण्य है सदा काम आया।

विनय से सिद्धि सुशोभित है,

अकड़ किसकी टिक पाती है।

प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

यही कहते रवि शशि चमको,

प्राप्त कर उज्ज्वलता दमको।

अंधेरे से संग्राम करो,

न खाली बैठो, काम करो।

काम जो अच्छे कर जाते,

याद उनकी रह जाती है।

प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

श्रीकृष्ण सरल


Poem 3 - Hindi Kavita on Nature

जब भी घायल होता है मन

प्रकृति रखती उस पर मलहम

पर उसे हम भूल जाते हैं

ध्यान कहाँ रख पाते हैं

उसकी नदियाँ, उसके सागर

उसके जंगल और पहाड़

सब हितसाधन करते हमारा

पर उसे दें हम उजाड़

योजना कभी बनाएँ भयानक

कभी सोच लें ऐसे काम

नष्ट करें कुदरत की रौनक

हम, जो उसकी ही सन्तान

अनातोली परपरा 

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Poem 4 - Hindi Poem on Prakarti 

हरी हरी खेतो में बरस रही ह बूंदे,

खुशी खुशी से आया है सावन,

भर गया खुशियों से मेरा आंगन।

ऐसा लग रहा है जैसे मन की कलियां खिल गई,

ऐसा आया है बसंत,

लेकर फूलों की महक का जशन।

धूप से प्यासे मेरे तन को,

बूंदों ने भी ऐसी अंगड़ाई,

उछल कूद रहा है मेरा तन मन,

लगता है मैं हूं एक दामन।

यह संसार है कितना सुंदर,

लेकिन लोग नहीं हैं उतने अकलमंद,

यही है एक निवेदन,

मत करो प्रकृति का शोषण।

अज्ञात 


Poem 5 - Prakarti Par Kavita -  सुन्दर रूप इस धरा का

सुन्दर रूप इस धरा का,

आँचल जिसका नीला आकाश,

पर्वत जिसका ऊँचा मस्तक,2

उस पर चाँद सूरज की बिंदियों का ताज

नदियों-झरनो से छलकता यौवन

सतरंगी पुष्प-लताओं ने किया श्रृंगार

खेत-खलिहानों में लहलाती फसले

बिखराती मंद-मंद मुस्कान

हाँ, यही तो हैं,……

इस प्रकृति का स्वछंद स्वरुप

प्रफुल्लित जीवन का निष्छल सार

डी. के. निवतियाँ 


Poem 6 - Parkarti Par Hindi Poem - मैं प्रकृति हूँ

मैं प्रकृति हूँ

ईश्वर की उद्दाम शक्ति और सत्ता का प्रतीक

कवियों की कल्पना का स्रोत

उपमाओं की जननी

मनुष्य सहित सभी जीवों की जननी

पालक

और अन्त में स्वयं मे समाहित करने वाली।

मैं प्रकृति हूँ

उत्तंग पर्वत शिखर

वेगवती नदियाँ

उद्दाम समुद्र

और विस्तृत वन-कानन मुझमें समाहित।

मैं प्रकृति हूँ

शरद, ग्रीष्म और वर्षा

मुझमें समाहित

सावन की बारिश

चैत की धूप

और माघ की सर्दी

मुझसे ही उत्पन्न

मुझसे पोषित।

मैं प्रकृति हूँ

मैं ही सृष्टि का आदि

और अनन्त

मैं ही शाश्वत

मैं ही चिर

और मैं ही सनातन

मैं ही समय

और समय का चक्र

मैं प्रकृति हूँ।


Poem 7 - Nature Poems in Hindi -  वातावरण पर कविता 

हे ईस्वर तेरी बनाई यह धरती , कितनी ही सुन्दर

नए – नए और तरह – तरह के

एक नही कितने ही अनेक रंग !

कोई गुलाबी कहता ,

तो कोई बैंगनी , तो कोई लाल

तपती गर्मी मैं

हे ईस्वर , तुम्हारा चन्दन जैसे व्रिक्स

सीतल हवा बहाते

खुशी के त्यौहार पर

पूजा के वक़्त पर

हे ईस्वर , तुम्हारा पीपल ही

तुम्हारा रूप बनता

तुम्हारे ही रंगो भरे पंछी

नील अम्बर को सुनेहरा बनाते

तेरे चौपाये किसान के साथी बनते

हे ईस्वर तुम्हारी यह धरी बड़ी ही मीठी


Poem 8 -  प्रकर्ति पर कविता - प्रकर्ति की पुकार

हे मानव पापी बनकर तुम,

क्योँ इतना उधम मचाते हो,

सब कुछ तुमको अर्पण करने वाली,

मुझ प्रकृति को अपने कुकर्मों से सताते हो।


जिसने पेड़-पौधे, दिए तुझे,

शुद्ध प्राण वायु जीवन के लिए,

क्यों काट रहे इनको निरन्तर तुम,

लालच के पैसे पाने के लिए।


वो हवा जो तुमको जीवन देती,

जो बनी तेरे रग रग में ताज़गी भर देने के लिए,

क्यों प्रदूषित कर रहे हो विस्फोटकों, 

रसायनों, फ़ैक्टरियों के धुंए द्वारा,

हर जीव का दम घुटने के लिए।


नदियों, तालाबों, वर्षा के द्वारा,

अमृत समान पानी भी दिए, 

जो कभी ना मना करें तुम्हारी प्यास बुझाने से,

क्योँ प्रदूषित कर रहे हो इनको,

असहाय जानवरों के खूनों और 

फ़ैक्टरियों के गन्दे नाले से।


जो आग दिए भोजन पकाने के लिए,

उनसे जंगलों को क्योँ जलाते हो,

इन्ही जंगलों में रह रह कर तुम,

सभ्य बने ये सत्य क्योँ भूल जाते हो।


वो मिट्टी जो तुम्हारे भोजन उत्पादन का स्रोत है,

उनमें जैविक की जगह रासायनिक उर्वरक मिलाते हो,

शायद तुमको मालूम नहीं, जलती है धरती इनसे,

तुम स्वयं ही अपने भोजन में ज़हर मिलाते हो।


फलों और सब्जियों में हानिकारक

इंजेक्शन और केमिकल द्वारा,

वृद्धि दर और पकने की प्रक्रिया बढ़ाते हो,

खुद भी मौत का दाना चुगते, 

औरों को भी खिलाते हो।


असहाय पक्षियों और जानवरों को,

हानिकारक दवाओं और यातनाओं द्वारा,

समय से पहले विकसित कराते हो,

तुम्हारे पूर्वजों ने जिनकी पूजा की,

तुम क्यों उनका ही लहू बहाते हो।


हे मानव पापी बनकर तुम,

क्योँ इतना उधम मचाते हो,

सब कुछ तुमको अर्पण करने वाली,

मुझ प्रकृति को अपने कुकर्मों से सताते हो।

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